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थैलेसीमिया क्या है? – What is Thalassemia in Hindi

थैलेसीमिया क्या है?

स्वागत है आपका हमारे ब्लॉग पर। दोस्तो, इस दुनियां में अनेक प्रकार की बीमारियां है। कुछ बीमारियां तो मौसमी होती हैं जो मौसम के बदलने पर होती हैं जैसे खांसी, जुकाम, दस्त, फोड़े-फुंसी आदि, कुछ बीमारियां संक्रमण के कारण होती हैं तो कुछ बीमारियां अनुवांशिक होती हैं जो माता-पिता से विरासत में मिलती हैं। ऐसी ही एक अनुवांशिक बीमारी है थैलेसीमिया जो माता या पिता या दोनों ही के दोषपूर्ण जीन के कारण बच्चे में आती है। इस रोग में लाल रक्त कोशिकाओं में सामान्य रूप से और पर्याप्त मात्रा में हीमोग्लोबिन का निर्माण नहीं हो पाता है। इसके परिणाम स्वरूप शरीर के ऊतकों, अंगों और कोशिकाओं को ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है तथा शरीर में रक्त की कमी हो जाती है। इसी विषय पर हम प्रकाश डालेंगे। दोस्तो, यही है हमारा आज का टॉपिक “थैलेसीमिया क्या है?”। 

देसी हैल्थ क्लब इस आर्टिकल के माध्यम से आज आपको थैलेसीमिया के बारे में विस्तार से जानकारी देगा और इसके उपचार के बारे में उपाय भी बताएगा। तो, सबसे पहले जानते हैं कि थैलेसीमिया क्या है और यह कितने प्रकार का होता है। फिर इसके बाद बाकी बिन्दुओं पर जानकारी देंगे।

थैलेसीमिया क्या है? – What is Thalassemia 

थैलेसीमिया (Thalassemia) वस्तुतः रक्त से संबंधित रोग है जो बच्चे को अपने माता-पिता की जीन से अनुवांशिक रूप में मिलता है। इस रोग में बच्चे के शरीर में रक्त की अत्याधिक कमी होने लगती है। इस वजह से उसे बार-बार बाह्य रक्त चढ़ाना पड़ता है।  दोस्तो, थैलेसीमिया को समझने से पहले हीमोग्लोबिन को समझना होगा। अस्थि मज्जा में ही आयरन पायरिडॉक्सिन की उपस्थिति में गलाइलिन नामक अमीनो एसिड से संयोग कर हीम नामक यौगिक का उत्पादन करता है जो ग्लोबिन नामक प्रोटीन से मिलकर हीमोग्लोबिन बनता है।

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यह लाल रक्त कोशिकाओं (Red Blood Cells) का मुख्य और महत्वपूर्ण प्रोटीन है। हीमोग्लोबिन का मुख्य काम फेफड़ों से शरीर के सभी अंगों, कोशिकाओं और ऊतकों में ऑक्सीजन सप्लाई करना होता है। जब शरीर, रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन का पर्याप्त मात्रा में उत्पादन नहीं कर पाता तो इस स्थिति को थैलेसीमिया कहा जाता है। थैलेसीमिया के मरीज के शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन शरीर की जरूरत के अनुसार सामान्य गति से नहीं हो पाता। शरीर में रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण में कमी से शरीर की कोशिकाओं और अंगों में ऑक्सीजन की सप्लाई पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाती, इस स्थिति को एनीमिया कहा जाता है। एनीमिया यानि शरीर में रक्त की कमी। 

थैलासीमिया से ग्रस्त व्यक्ति को एनीमिया हो सकता है। गंभीर एनीमिया होने पर शरीर के आंतरिक अंगों को क्षति होने लगती है इससे मरीज के जीवन का जोखिम बढ़ जाता है। ऐसी हालत में मरीज को रक्त चढ़ाना पड़ता है। इसका जिक्र हम आगे करेंगे। भारत में प्रति वर्ष लगभग 7 से 10 हजार थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों का जन्म होता है। थैलेसीमिया रोग, अधिकतर एशिया, मध्य पूर्व के देश, अफ्रीका, भूमध्य सागर के देश के लोगों में देखने को मिलता है। हीमोग्लोबिन पर विस्तार से जानकारी के लिए हमारा पिछला आर्टिकल “हीमोग्लोबिन की कमी दूर करने के उपाय” पढ़ें। 

थैलेसीमिया के प्रकार – Types of Thalassemia

थैलेसीमिया मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है – अल्फा थैलेसीमिया और बीटा थैलेसीमिया। इनके भी अपने प्रकार होते हैं। विवरण निम्न प्रकार है – 

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1. अल्फा थैलेसीमिया (Alpha Thalassemia)- सामान्यतः हर व्यक्ति में अल्फा ग्लोबिन के लिए चार जीन होते हैं। अल्फा ग्लोबिन के निर्माण को कंट्रोल करने वाले एक या अधिक जीन यदि दोषपूर्ण हैं या हैं ही नहीं तब अल्फा थैलेसीमिया बनता है। इसके निम्न्लाखित चार प्रकार होते हैं – 

(i) अल्फा थैलेसीमिया मेजर (Alpha Thalassemia Major)- यह अत्यंत गंभीर होता है जिसमें बच्चे के जन्म से पहले ही गंभीर एनीमिया की स्थिति बन जाती है। इसमें गर्भवती महिलाओं को भी गर्भावस्था के दौरान तथा प्रसव संबंधी जटिलताओं की संभावना रहती है। 

(ii) अल्फा थैलेसीमिया माइनर (Alpha Thalassemia Minor)- यह वह स्थिति होती है जिसमें बच्चे में दो लापता या उत्परिवर्तित (mutated) जीन होते हैं। इस स्थिति में बच्चों में लाल रक्त कोशिकाएं सामान्य से छोटी होती हैं जिनमें हल्का एनीमिया भी हो सकता है। 

(iii) हीमोग्लोबिन एच रोग (Hemoglobin H Disease)-  तीन लापता या उत्परिवर्तित जीन होने पर, इसे हीमोग्लोबिन एच रोग कहते हैं। इस स्थिति में लक्षण मध्यम से गंभीर हो सकते हैं। 

(iv) साइलेंट अल्फा थैलेसीमिया कैरियर (Silent Alpha Thalassemia Carrier)-  यदि बच्चे में एक जीन है ही नहीं या जीन असामान्य है तो ऐसी स्थिति में बच्चा साइलेंट अल्फा थैलेसीमिया कैरियर कहलाएगा।  इस रोग के कोई संकेत या लक्षण प्रकट नहीं होते हैं, लेकिन साइलेंट अल्फा थैलेसीमिया वाहक, थैलेसीमिया अपने बच्चों को दे सकते हैं।

2. बीटा थैलेसीमिया रोग (Beta Thalassemia Disease)-  यह आम प्रकार का थैलेसीमिया है जिसमें सामान्य वयस्क हीमोग्लोबिन (Hb A) का बनना कम हो जाता है। यह जीवन पर्यन्त शरीर में हीमोग्लोबिन का प्रमुख प्रकार होता है। बीटा थैलेसीमिया की स्थिति तब बनती है जब एक या दोनों बीटा-ग्लोबिन जीन दोषपूर्ण हों। बीटा-ग्लोबिन चेन बनाने में दो जीन सम्मलित होते हैं। अपने माता-पिता से एक मिलता है, यदि आप वारिस हैं –

(i) एकल उत्परिवर्तित जीन (Single Mutated Gene) – इसे माइनर थैलेसीमिया कहा जाता है, यह स्थिति बहुत कुछ आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया की तरह होती है। इसमें माइनर एनीमिया होगा, जो रक्त में हीमोग्लोबिन स्तर का थोड़ा कम कर देगा। 

(ii) दो उत्परिवर्तित जीन (Two Mutated Gene) – इसे मेजर या कूली एनीमिया कहा जाता है। यह वह स्थिति होती है जिसमें शिशुओं के जीवनकाल के पहले वर्ष में गंभीर एनीमिया के लक्षण होते हैं। ये शिशु सामान्य, वयस्क हीमोग्लोबिन का उत्पादन करने में सक्षम नहीं होते तथा निरन्तर पुरानी थकान से पीड़ित रहते हैं। इसका हल्का रूप दो उत्परिवर्तित जीनों के साथ भी हो सकता है जिसको थैलेसीमिया इंटरमीडिया कहते हैं।

थैलेसीमिया के कारण – Cause of Thalassemia

थैलेसीमिया का एक ही कारण होता है  माता या पिता अथवा दोनों के ही जीन में दोष होना। हीमोग्लोबिन दो प्रकार के प्रोटीन अल्फा और बीटा ग्लोबिन से बनता है। इन में से किसी भी प्रोटीन का उत्पादन करने वाले जीन में दोष होने पर थैलेसीमिया बनता है। यह माइनर भी हो सकता है और मेजर भी। विवरण निम्न प्रकार है –

1. माइनर थैलेसीमिया (Minor Thalassemia) – यदि बच्चा प्रभावित जीन को अपने माता या पिता किसी एक से प्राप्त करता है तो उसे जो थैलेसेमिया होगा वह माइनर होगा। ब्लड टेस्ट करते समय लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या में कमी देखी जाना और उनके आकार में परिवर्तन पाए जाने से इस थैलेसेमिया का पता चलता है। 

2.मेजर थैलेसीमिया (Major Thalassemia)- यदि माता-पिता दोनों के ही जीन दोषयुक्त हैं तो उनसे प्राप्त जीन से बच्चे में मेजर थैलेसेमिया होगा। यह गंभीर स्थिति होती है। 

ये भी पढ़े- एनीमिया को दूर करने के घरेलू उपाय

थैलासीमिया के लक्षण –  Symptoms of Thalassemia

थैलासीमिया के स्पष्ट लक्षण कुछ मामलों में दिखाई नहीं देते परन्तु कई मामलों में लक्षण नजर आते हैं। कई बार लक्षण बचपन में नजर नहीं आते बल्कि किशोरावस्था से दिखाई देने लगते हैं। सामान्य लक्षण निम्न प्रकार हैं –

1. हड्डियों से जुड़ी विकृति विशेषकर चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देती है।

2. लाल रक्त कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त होते रहने से मूत्र का रंग गहरा हो जाना।

3. त्वचा का रंग में परिवर्तन, रंग हो जाना पीला या फीका पड़ जाना।

4. बच्चे का विकास रुक जाना। या विकास की गति धीमी हो जाना।

5. अधिकतर थकान महसूस होना। 

जटिलताएं – Complications

थैलेसीमिया के साथ अन्य निम्नलिखित समस्याएं भी हो सकती हैं –

1. आयरन ओवरलोड (Iron Overload)- हीमोग्लोबिन के स्तर को 9 और 10.5 g/dL के बीच बनाए रखने के लिए बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है, इससे शरीर में आयरन की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है। आयरन के स्तर में बढ़ोत्तरी के कारण लोहे की विषाक्तता होती है। 

2. स्प्लीन का बढ़ना (Enlargement of the Spleen)- थैलेसीमिया होने पर लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन सामान्य तौर पर नहीं हो पाता है। ऐसे में स्प्लीन का आकार बढ़ जाता है और फिर यह सामान्य रूप से काम नहीं कर पाती है। स्प्लीन संक्रमण के विरुद्ध लड़ती है। 

3. संक्रमण (Infection)- हमने ऊपर बताया है कि स्प्लीन संक्रमण के विरुद्ध लड़ती है। मगर जब इसे निकाल दिया जाता है तो थैलेसीमिया से पीड़ित व्यक्तियों में संक्रमण होने की संभावना बढ़ जाती है।

4. हड्डियों में विकृति (Bone Deformities)- थैलेसीमिया के कारण हड्डियों में विकृति हो जाती है। इस कारण चेहरे की हड्डियों का आकार बिगड़ जाता है। हड्डियों में विकृति के कारण इनका कमजोर होना स्वाभाविक है और इनके टूटने का जोखिम भी बना रहता है।

5. हार्ट की समस्या (Heart Problem)-  थैलेसीमिया की बीमारी में हृदय संबंधी समस्याएं जैसे कंजेसिव हार्ट फेल्योर, होने की संभावना बढ़ जाती है।

थैलेसीमिया का निदान –  Diagnosis of Thalassemia

थैलेसीमिया के निदान के लिए डॉक्टर निम्नलिखित टेस्ट कर सकते हैं –

1. शारीरिक परीक्षण (Physical Examination)- सबसे पहले डॉक्टर मरीज की पिछली मेडिकल हिस्ट्री के बारे जानकारी लेते हैं साथ ही फैमिली हिस्ट्री के बारे में भी पूछताछ करते हैं। फिर शरीर में स्प्लीन की स्थिति जानने के लिये मरीज का शारीरिक परीक्षण करते हैं। इससे यह पता चल जाता है कि स्प्लीन बढ़ा हुआ है या नहीं।

2. ब्लड टेस्ट (Blood Test)- बल्ड टेस्ट के जरिए एनीमिया और असामान्य हीमोग्लोबिन की जांच की जाती है।  माइक्रोस्कोप के जरिए टेक्नीशियन यह भी जांच करते हैं कि लाल रक्त कोशिकाओं का आकार सामान्य है या नहीं। इसके लिए लाल रक्त कोशिकाओं के अणुओं को अलग-अलग कर दिया जाता है ताकि असामान्य अणुओं की जांच की जा सके।

थैलेसीमिया का उपचार –  Treatment of Thalassemia

थैलेसीमिया के उपचार के लिए निम्नलिखित विधि अपनाई जा सकती हैं –

1. दवाइयां या सप्लीमेंट (Medications or Supplements)- कैल्शियम, विटामिन-डी आदि की खुराक दी जा सकती है। फोलिक एसिड की खुराक जिससे स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं के उत्पादन में मदद मिलती है।

2. सर्जरी (Surgery)- बढ़े हुए स्प्लीन या गॉल ब्लाडर को हटाने के लिए सर्जरी की जा सकती है।

3. बोन मैरो ट्रांसप्लांट (Bone Marrow Transplant)- यह भी एक सर्जरी प्रक्रिया है। स्टेम सेल, अस्थि मज्जा के भीतर कोशिकाएं होती हैं। इनका काम लाल रक्त कोशिकाओं और अन्य प्रकार की कोशिकाओं के उत्पादन में मदद करना है। किसी डोनर से स्टेम सेल लेकर मरीज के खराब स्टेम सेल से बदल दिया जाता है। 

ये भी पढ़े- बोन मेरो ट्रांसप्लांट क्या है?

4. ब्लड ट्रांसफ्यूजन(Blood Transfusion) – इसमें नियमित रूप से मरीज को ब्लड चढ़ाया जाता है। 

5. आयरन केलेशन थेरेपी (Iron Chelation Therapy)- इसका उपयोग शरीर में से आयरन के अधिभार को हटाने के लिये किया जाता है।

अतिरिक्त आयरन क्यों और कैसे निकाला जाता है? – Why and How is Excess Iron Removed?

जिन मरीजों को खून चढ़ाया जाता है वे शरीर में उपस्थित अतिरिक्त आयरन को हटाने नहीं पाते। यह अतिरिक्त आयरन ऊतकों में जमा होने लगता है जोकि जानलेवा साबित हो सकता है। इसलिये इसको हटाना बहुत जरूरी होता है। इसको दो प्रकार से हटाया जाता है। पहले तरीके में डेसोरॉल (इंजेक्शन) के जरिए आयरन निकाला जाता है। इस प्रक्रिया आठ से दस घंटे लग जाते हैं। 

यह प्रक्रिया कष्टकारी और बहुत मंहगी होती है। एक इंजेक्शन की कीमत 164/- रुपए होती है तथा इस प्रक्रिया में हर वर्ष लगभग पचास हजार से डेढ़ लाख रुपए तक का खर्च आता है। शरीर से अतिरिक्त आयरन निकालने की दूसरी प्रक्रिया में कैलफर नामक दवा के कैप्सूल दिए जाते हैं। यह दवा का उपचार सस्ता तो पड़ता है परन्तु 30 प्रतिशत मरीजों को जोड़ों में दर्द की समस्या बन जाती है तथा इनमें से एक प्रतिशत बच्चे गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। 

खून चढ़ाने की बार-बार जरूरत क्यों पड़ती है? – Why is There a Need for Frequent Blood Transfusions?

सामान्य प्रक्रिया के अनुसार ये लाल रक्त कोशिकाएं खत्म होती रहती हैं और नई बनती रहती हैं। रक्त में स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं की आयु 120 दिन होती है। थैलेसीमिया रोग हो जाने पर इन कोशिकाओं की आयु केवल 20 दिन रह जाती है।

जो कोशिकाएं रक्त के साथ चढ़ाई जाती हैं उनकी आयु भी कम होती है। गंभीर थैलेसीमिया से पीड़ित मरीजों के शरीर में खून की कमी न होने पाये इसलिये हर 21 दिन बाद बच्चों को कम से कम एक यूनिट खून चढ़ाया जाता है। 

Conclusion – 

दोस्तो, आज के आर्टिकल में हमने आपको थैलेसीमिया के बारे में विस्तार से जानकारी दी। थैलेसीमिया क्या है?, थैलेसीमिया के प्रकार, थैलेसीमिया के कारण, थैलासीमिया के लक्षण, जटिलताएं और थैलेसीमिया का निदान, इन सब के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया। देसी हैल्थ क्लब ने इस आर्टिकल के माध्यम से थैलेसीमिया के उपचार के बारे में बताया और यह भी बताया कि शरीर अतिरिक्त आयरन क्यों और कैसे निकाला जाता है तथा खून चढ़ाने की बार-बार जरूरत क्यों पड़ती है। आशा है आपको ये आर्टिकल अवश्य पसन्द आयेगा। 

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Disclaimer – यह आर्टिकल केवल जानकारी मात्र है। किसी भी प्रकार की हानि के लिये ब्लॉगर/लेखक उत्तरदायी नहीं है। कृपया डॉक्टर/विशेषज्ञ से सलाह ले लें।

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दोस्तो, आज के आर्टिकल में हमने आपको थैलेसीमिया के बारे में विस्तार से जानकारी दी। थैलेसीमिया क्या है, थैलेसीमिया के प्रकार, थैलेसीमिया के कारण, थैलासीमिया के लक्षण, जटिलताएं और थैलेसीमिया का निदान, इन सब के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया।
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